Sunday, January 8, 2017

पतझड़ के दिन अब नहीं दूर हैं

यह तस्वीर दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ कैंपस की है। जहाँ ट्रांसलेशन वाले कोर्स के दौरान भावी अनुवादकों और साहित्य शोधकर्ताओं के साथ हर शाम चाय की चुस्कियों के साथ कोई न कोई दास्तां लिखा करते थे।

हम शाम कोई न कोई मुद्दा उछलता, उलझता और सुलझता हुआ बातचीत के दरम्यां अपनी जगह पाने को बेताब होता। हम भी बेताब रहते थे, ऐसी शामों के लिए और चाय की चुस्कियों के लिए। 

हवाओं का रुख बदल गया है

हवाओं ने अपना रूख बदल लिया है। अभी हवा में सर्दी का अहसास है, पेड़ के पत्तों के टूटने की आवाज़ है और धूप का कड़क मिजाज थोड़ा मुलायम हो गया है। मगर सर्दी की धूप का हाल देखकर चिंता होती है कि गर्मी के मौसम में धूप का क्या होगा? लोगों का क्या होगा? राजस्थान के कुछ हिस्सों में तो सर्दी बस सुबह और शाम के मेहमान सरीखा हो गई हैं। जो काम करने वाले इंसानों की तरह बस सुबह और शाम अपने घर पर नजर आती है। दिन में लोग टी-शर्ट पहनकर घूमते नजर आते हैं। रात के समय आग के पास बैठे दिखाई देते हैं। रात और सुबह में सर्दी को सम्मान देते हुए भी नजर आते हैं।  

यहां आसपास दिन में पतंग उड़ाते बच्चे नज़र आते हैं। आज पतंगों के ऊपर ढेर सारी बातें लिखने का मन हो रहा था। जैसे हमारी ज़िंदगी भी पतंगों जैसी है। कभी हवाओं से बात करती है। तो कभी जमीन के ऊपर रफ्ता-रफ्ता चलती सी महसूस होती है। कभी हम बेहद सुरक्षित माहौल में जी रहे होते हैं तो दूसरे लम्हे में इतनी आपाधापी होती है कि पतंग की तरह अपनी नश्वरता का बोध हमारे अस्तित्व को झकझोरता सा महसूस होता है। छोटे बच्चों को पतंग उड़ाने की बार-बार कोशिश करते हुए देखकर उनकी लगन का अहसास होता है कि बच्चे जब किसी चीज़ को पूरे मन से करने की ठान लेते हैं तो फिर उसे करके ही मानते हैं।

आज बाज़ार से कच्चे चने लाया ताकि गाँव के खेतों की याद ताज़ा की जा सके। उसे लेकर बच्चों के पास छत पर गया तो उनका कहना था कि इसे तो भूनकर खाने में ज्यादा आनंद है। फिर क्या था? बच्चों ने चने की थैली संभाली और थोड़ी देर में भूनकर छत पर हाजिर हुए। सबने एक साथ भुने हुए हरे चने खाने का आनंद लिया। सालों बाद उस खुशबू से रूबरू हुए जो यादों का हिस्सा बनकर मन के किसी कोने में क़ैद भी। शाम को आग तापते हुए आग में मटर, आलू और गंजी भूनने वाले और मिट्टी के खिलौने पकाकर मजबूत करने वाले लम्हे याद आए। बल्ब की पीली रौशनी से अक्सर मिट्टी के तेल वाली बोतल और उसमें लगी बाती से बनी रौशनी देने वाली देशी लैंप याद आती है, फिर लालटेन और तेज़ रौशनी वाला लैंप याद आता है। जिसके तेल से अक्सर कोई कॉपी या किताब अपने पन्ने को पारदर्शी कर लेती थी। 

ख़ामोशी से बेहतर है कि संवाद के सिलसिले बने रहें। इस विचार को मूर्त रूप में ढालने की कोशिश में यह पोस्ट लंबे इंतज़ार के बाद लिख रहा हूँ। 

2 comments:

  1. बहुत दिनों बाद बसन्त के बिखरे पत्तों पर आए और आए भी तो बिखर जाने की यादों के साथ।

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  2. हाँ, अब बातों का सिलसिला जारी रहेगा। बिखरने की प्रक्रिया में समेटने का अहसास भी शामिल होता है। जैसे कुदरत सूखे पत्तों को बिखेरकर हरी कोंपलों के आने का रास्ता साफ करती है।

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