Saturday, January 3, 2015

'समाज अपनी राह पर, विज्ञान मंगल ग्रह पर.....'

1) सफलता से पहले तैयारी और कड़ी मेहनत का रहस्य जानने के लिए व्यावहारिक होना होगा। तैयारी का अर्थ परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए फ़ैसले लेने से है। मेहनत का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको खेत में हल चलाना चाहिए औऱ आप सड़क जोत रहे हैं। चीज़ें पुरानी हैं...विचार पुराने हैं,...लेकिन मौलिक सिद्धांत जीवन के पहले जैसे ही हैं....इसलिए बड़ी-बड़ी बातों और विचारों से प्रभावित न हों...वास्तविकता की ज़मीन के करीब रखकर उनका मूल्यांकन करें। समस्याओं को सही तरीके से अप्रोच करने। उनको समझने और समाधान निकालने की नियति से होने वाली कोशिशों से ही कोई हल निकलेगा। 

क्योंकि वर्तमान के व्यावसायिक युग में हर कोई अपने हिस्से का काम दूसरे पर टालना चाहता है,,,,इसके कारण समस्याओं को मजबूत मिलती है और समाधान दूर चला जाता है। उपेक्षित लोगों को और उपेक्षित करने का फॉर्मूला भी समाज में दिखाई देता है....जैसे कोई ट्रेन लेट होती है तो धीरे-धीरे और लेट होती चली जाती है। उसी तरीके से अगर कोई सेक्टर पिछड़ा हुआ है और उससे समाज के प्रबुद्ध तबके का हित प्रभावित नहीं हो रहा है तो उसे ट्रेन की तरह से और लेट होने के लिए और पिछड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसे सरकारी स्कूलों के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी उनकी स्थिति में आख़िर बदलाव क्यों नहीं हो रहा है....क्षणिक परिवर्तन के बाद फिर पुरानी स्थिति क्यों बहाल हो जाती है?

2) मौसम सब्जियां उगाने और दिनचर्या तय करने के लिए होता है। सफलता और असफलता मात्र विचार हैं। इंसान की कोशिशों को नज़रअंदाज करने वाली अवधारणाएं हैं....इसलिए वर्तमान में अंतिम परिणाम की जगह प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए और इसकी भी तारीफ़ होनी चाहिए। परिणाम अनुकूल न हों तो धैर्य के साथ इंतज़ार करना चाहिए और समय रहते हुए रणनीति या काम करने के तरीके में बदलाव लाना चाहिए।

3)सामाजिक विज्ञान की भारत में स्थिति बहुत बुरी है। समाज अपनी राह पर है और विज्ञान मंगल ग्रह की खाक छान रहा है।

4) कुछ तथाकथित ज्ञानी और विचारशील लोगों ने मानवता को ख़तरे में डालने का पूरा प्रपंच रचा है। वह दौर लद गया जब ज्ञान, दर्शन होता था और दार्शनिकों को ज्ञानी माना जाता था। आजकल तो कारोबार का बोलबाला है,.,...धंधा (व्यक्तिगत लाभ) और सामाजिक विकास एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं।

5) स्वयंसेवा को अमूल्य बताकर मेहनताना मारने की थ्योरी पुरानी हो गई है। इसी तरह की दीर्घकालीन परियोजनाओं के कारण रोज़गार की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। विशेषज्ञता हासिल किए हुए लोगों को विकसित होने का मौका नहीं मिल रहा है। जैसे जब कोई सलाह देता है कि लोगों को स्कूलों में जाकर कम से कम एक दिन पढ़ाना चाहिए, तो वह स्वयंसेवा को बढ़ावा नहीं देता बल्कि अध्यापकों को नियुक्ति करने की जिम्मेदारी से भागने की कोशिश करता है।

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