Thursday, January 1, 2015

कहां चले ये क़दम.....

इस तस्वीर को देखकर हमेशा एक हैरानी सी होती है। न जाने क्यों? बहुते सी बातें मन में आती है। पतंग बहुत बड़ी है। या बचपन छोटा है। नंगे पाँव पतंग के साथ बच्चे को जाते देखकर लगता है कि यह पतंग किसके लिए है? 

क्या इसी बच्चे के लिए जो इसे लेकर जा रहा है? या फिर बच्चा इसे बाज़ार की तरफ़ लेकर जा रहा है ताकि इसे सही क़ीमत में बेचकर जीवन की सबसे बड़ी समस्या यानि भूख का समादान खोज सके। अब यह लम्हा कहीं नहीं है। सिर्फ़ उस लम्हे की स्मृति है जब यह तस्वीर खींची गई थी।

कुछ लम्हे सालों तक हमारा पीछा करते हैं,,,,,,,,,,,यह तस्वीर उन्हीं लम्हों की एक बानगी भऱ है। यह तस्वीर अहमदाबाद की है। वहाँ की कांकरिया झील के किनारे से बहुत से ऐसे बच्चे मिल जाएंगे, जिनको स्कूल में होना चाहिए। लेकिन वे वहां की दूकानों पर काम कर रहे हैं। उनके लिए शिक्षा का अधिकार एक क़ानूनी हक़ है, लेकिन वे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी अपने मासूम कंधों पर ढो रहे हैं। इस तरह के लम्हे हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। आसपास के यथार्थ के रूबरू कराते हैं कि वास्तविक जीवन में आदर्श नहीं यथार्थ का बोलबाला है। जो वास्तविक समस्याओं का समाधान कर दे वही हीरो है..बाकी आदर्शवादी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं। लेकिन उनका परिणाम तो जीरो है।

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