Monday, January 5, 2015

बात न करने की कोई मजबूरी सी है...

इस नए साल में उनसे एक दूरी सी है
बात न करने की कोई मजबूरी सी है
उनकी ख़ामोशी देखकर चुप मैं भी हूँ
मेरी बेरुखी देखकर ख़ामोशी वो भी हैं
न वो कुछ कहते हैं न मैं कुछ बताता हूँ
चुपके-चुपके सारा हाल पता चलता है
नए दौर के रिश्तों की है अजब सी यारी
चंद रोज़ की ख़ुशी, उछाह और उल्लास है
उसके बाद तो पूरा चाँद हौले से ढलता है............

Saturday, January 3, 2015

'समाज अपनी राह पर, विज्ञान मंगल ग्रह पर.....'

1) सफलता से पहले तैयारी और कड़ी मेहनत का रहस्य जानने के लिए व्यावहारिक होना होगा। तैयारी का अर्थ परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए फ़ैसले लेने से है। मेहनत का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको खेत में हल चलाना चाहिए औऱ आप सड़क जोत रहे हैं। चीज़ें पुरानी हैं...विचार पुराने हैं,...लेकिन मौलिक सिद्धांत जीवन के पहले जैसे ही हैं....इसलिए बड़ी-बड़ी बातों और विचारों से प्रभावित न हों...वास्तविकता की ज़मीन के करीब रखकर उनका मूल्यांकन करें। समस्याओं को सही तरीके से अप्रोच करने। उनको समझने और समाधान निकालने की नियति से होने वाली कोशिशों से ही कोई हल निकलेगा। 

क्योंकि वर्तमान के व्यावसायिक युग में हर कोई अपने हिस्से का काम दूसरे पर टालना चाहता है,,,,इसके कारण समस्याओं को मजबूत मिलती है और समाधान दूर चला जाता है। उपेक्षित लोगों को और उपेक्षित करने का फॉर्मूला भी समाज में दिखाई देता है....जैसे कोई ट्रेन लेट होती है तो धीरे-धीरे और लेट होती चली जाती है। उसी तरीके से अगर कोई सेक्टर पिछड़ा हुआ है और उससे समाज के प्रबुद्ध तबके का हित प्रभावित नहीं हो रहा है तो उसे ट्रेन की तरह से और लेट होने के लिए और पिछड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसे सरकारी स्कूलों के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी उनकी स्थिति में आख़िर बदलाव क्यों नहीं हो रहा है....क्षणिक परिवर्तन के बाद फिर पुरानी स्थिति क्यों बहाल हो जाती है?

2) मौसम सब्जियां उगाने और दिनचर्या तय करने के लिए होता है। सफलता और असफलता मात्र विचार हैं। इंसान की कोशिशों को नज़रअंदाज करने वाली अवधारणाएं हैं....इसलिए वर्तमान में अंतिम परिणाम की जगह प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए और इसकी भी तारीफ़ होनी चाहिए। परिणाम अनुकूल न हों तो धैर्य के साथ इंतज़ार करना चाहिए और समय रहते हुए रणनीति या काम करने के तरीके में बदलाव लाना चाहिए।

3)सामाजिक विज्ञान की भारत में स्थिति बहुत बुरी है। समाज अपनी राह पर है और विज्ञान मंगल ग्रह की खाक छान रहा है।

4) कुछ तथाकथित ज्ञानी और विचारशील लोगों ने मानवता को ख़तरे में डालने का पूरा प्रपंच रचा है। वह दौर लद गया जब ज्ञान, दर्शन होता था और दार्शनिकों को ज्ञानी माना जाता था। आजकल तो कारोबार का बोलबाला है,.,...धंधा (व्यक्तिगत लाभ) और सामाजिक विकास एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं।

5) स्वयंसेवा को अमूल्य बताकर मेहनताना मारने की थ्योरी पुरानी हो गई है। इसी तरह की दीर्घकालीन परियोजनाओं के कारण रोज़गार की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। विशेषज्ञता हासिल किए हुए लोगों को विकसित होने का मौका नहीं मिल रहा है। जैसे जब कोई सलाह देता है कि लोगों को स्कूलों में जाकर कम से कम एक दिन पढ़ाना चाहिए, तो वह स्वयंसेवा को बढ़ावा नहीं देता बल्कि अध्यापकों को नियुक्ति करने की जिम्मेदारी से भागने की कोशिश करता है।

Thursday, January 1, 2015

फ़ेसबुकीय मायाजाल की उलझन....

नए नवेले साल 2015 का पहला दिन बीतने को है। लेकिन अभी तक टेलीविजन पर एक नज़र तक नहीं पड़ी है। हाँ, दिन के अख़बार का पन्ना पलटने का मौका जरूर मिला था। इससे एक बात तो साफ़ होती है कि हमारी ख़ुशी और टेलीविजन से दूर रहने का सीधा सा रिश्ता है। इसके अलावा आज के दिन का अधिकांश हिस्सा फ़ेसबुक पर दोस्तों को नए साल की शुभकामनाएं देने में बीता।

इस दौरान एक बात सिद्दत से महसूस हो रही थी कि वर्चुअल दुनिया से दूर रहना हमारे लिए अच्छा है। क्योंकि एक सीमा के बाद 'फ़ेसबुकीय मायाजाल' में उलझना आपके मन से सार्थकता का बोध छीन सकता है। इस दुनिया से आपका मोहभंग कर सकता है। इस बात को समझने के लिए ऐसा करने वाले लोगों के अनुभव को समझने की कोशिश की जा सकती है। कुछ दिन पहले एक मित्र बता रहे थे कि उनको ह्वाट्स ऐप का एडिक्शन है। जब सामने वाला कुछ लिख रहा होता है तो उनको जानने की इच्छा होती है कि सामने वाला आख़िर क्या लिख रहा है? 

इसके साथ-साथ उन्होंने एक बात और कही थी कि फुरसत के लम्हों में लोग देखते हैं कि ह्वाट्स ऐप पर कौन ऑनलाइन है? ताकि उससे चैट कर सकें। इस तरीके से तकनीक लोगों की ज़िंदगी में दबे पाँव दाख़िल हो रही है। पहले यह उनको अपना मुरीद बनाती है। फिर अपनी आदत डलवाती है। उसके बाद आख़िरकार उनको अपने नशे की गिरफ़्त में ले लेती है। तकनीक के इस नशे के एक पहलू के बारे में पता चला तो लगा कि आपके साथ साझा किया जाए ताकि आपके अनुभवों को जाना जा सके कि क्या तकनीक आपको भी ऐसे ही प्रभावित करती है? जैसे मुझे या बाकी अन्य लोगों को। अगर हाँ, तो नए साल में तकनीक के इस्तेमाल को लेकर भी नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।

कहां चले ये क़दम.....

इस तस्वीर को देखकर हमेशा एक हैरानी सी होती है। न जाने क्यों? बहुते सी बातें मन में आती है। पतंग बहुत बड़ी है। या बचपन छोटा है। नंगे पाँव पतंग के साथ बच्चे को जाते देखकर लगता है कि यह पतंग किसके लिए है? 

क्या इसी बच्चे के लिए जो इसे लेकर जा रहा है? या फिर बच्चा इसे बाज़ार की तरफ़ लेकर जा रहा है ताकि इसे सही क़ीमत में बेचकर जीवन की सबसे बड़ी समस्या यानि भूख का समादान खोज सके। अब यह लम्हा कहीं नहीं है। सिर्फ़ उस लम्हे की स्मृति है जब यह तस्वीर खींची गई थी।

कुछ लम्हे सालों तक हमारा पीछा करते हैं,,,,,,,,,,,यह तस्वीर उन्हीं लम्हों की एक बानगी भऱ है। यह तस्वीर अहमदाबाद की है। वहाँ की कांकरिया झील के किनारे से बहुत से ऐसे बच्चे मिल जाएंगे, जिनको स्कूल में होना चाहिए। लेकिन वे वहां की दूकानों पर काम कर रहे हैं। उनके लिए शिक्षा का अधिकार एक क़ानूनी हक़ है, लेकिन वे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी अपने मासूम कंधों पर ढो रहे हैं। इस तरह के लम्हे हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। आसपास के यथार्थ के रूबरू कराते हैं कि वास्तविक जीवन में आदर्श नहीं यथार्थ का बोलबाला है। जो वास्तविक समस्याओं का समाधान कर दे वही हीरो है..बाकी आदर्शवादी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं। लेकिन उनका परिणाम तो जीरो है।

नए साल का जश्न जारी है.......

आज की शाम कोई विदा हो रहा था। उसके मन में ख़ामोशी से जाने की हसरत थी। लेकिन लोगों को इसकी परवाह नहीं थी। सुबह से शाम की घड़ियों का लोग इंतज़ार कर रहे थे, जब उसे जाना था। उसके जाने के साथ ही कोई आने वाला था। 

लेकिन इन दोनों लम्हों के बीच कुछ लोग इतने खोए हुए थे कि न उन्हें आने वाले की ख़बर थी, न ही जाने वाले का कोई ख़्याल था। उनके लिए तो सालों का आना-जाना यानि बदलना बस एक पल (सेकेंड) का मामला था।

लेकिन कमरे की घड़ी वही थी, उसकी टिकटिक वही थी। रोज़ की भूख वहीं थी, खाने का इंतज़ाम करना था। सुबह के चाय की तलब भी कायम थी, उसका भी इंतजाम करना था। सिर्फ़ कैलेंडर बदले थे, लोग भी वही थी। सूरज भी वही था। चाँद भी वही था। रात भी वही थी। सड़क भी वही थी। लोगों की आवाजाही में उतनी ही हड़बड़ी थी। लोगों के नाम भी वही थे। पहचान भी वही थी....कुछ सतर्क लोग खोज रहे थे। आख़िर नया क्या है? उन्होंने पूरा घर छान मारा। सारी चीज़ें उलट-पलटकर देख लीं। ख़ुद को भी आईने में बार-बार देखा। चेहरा भी वही था। आईना भी वही था।

इस बदलाव की तलाश के बीच लोगों के फ़ोन आ रहे थे, ह्वाट्स ऐप पर मैसेज आ रहे थे, फ़ेसबुक, ट्विटर पर संदेशों का ट्रैफ़िक बढ़ गया था। सवाल अभी भी क़ायम था कि नया क्या है? न्यू क्या है? NEW...Where is that newness all the people were talking about and someone remind me....The calendar has changed. कैलेंडर बदल गया है। रोज़ कैलेंडर के पन्ने बदलते थे। आज कैलेंडर पुराना पड़ गया है क्योंकि साल बीत गया है। तो कैलेंडर बदलने की ख़ुशी मुबारक हो यही कहा था....मेरे एक दोस्त ने।

लेकिन उनसे भी कहना पड़ेगा कि पुराने कैलेंडर में भी नए साल के एक महीने का जिक्र है ताकि लोगों को हड़बड़ी में कैलेंडर बदलने की जरूरत न पड़े। वैसे भी जबसे फ़ोन स्मार्ट हुआ है तबसे तो घड़ी और कैलेंडर दोनों के दिन लद से गए हैं। हाँ, दोनों का अस्तित्व अभी भी बना हुआ है। लेकिन आख़िर कब तक? कहना मुश्किल है। सालों पहले लोगों को हैप्पी न्यू ईयर की ग्रीटिंग लिखी जाती थी....लोग शब्दों और अच्छी हैंडराइटिंग वाले लोगों की तलाश करते थे ताकि अपने मन की बात कह सकें औऱ उन तक अपनी शुभकामनाएं पहुंचा सकें। नया साल है, लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज्यों की त्यों जारी है। इसके साथ ही जारी है नए साल का जश्न भी....।

रिश्ते और मोहब्बत....

साल बदल गया। लेकिन तेवर नहीं बदले। शुभकामनाएं भी पुराने तेवर में आ रही हैं कि कबूल नहीं हुईं तो देख लेना। तुम्हें पहचानते हैं। जानते हैं। समझते हैं। इसलिए तुम्हारे तेवर से हैरान नहीं हैं दोस्त। लेकिन बस इतनी सी गुजारिश है कि एकतरफा गुस्सा अच्छा नहीं होता। जैसे कभी-कभी एकतरफ़ा प्यार अच्छा नहीं होता। ख़ैर किसी भी रिश्ते को एक तरफ़ा मोहब्बत की तरह निभाना तो आदर्श वाली स्थिति हो सकती है।
लेकिन इसमें भी एक उदासीनता सी नज़र आती है। मानो कोई कह रहा है कि तुम क्या कर रहे हो मुझे इस बात से कोई फर्क़ नहीं पड़ता। इसलिए नए साल में रिश्तों और दोस्ती को एकतरफ़ा मोहब्बत की तरह निभाने वाले फलसफे में थोड़ा सा बदलाव है....कि सामने वाला क्या कह रहा है? उसे सुना जाए। उसे उसके अर्थ में समझा जाए। वह जैसा चाहता है, उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए। एकदम पॉजिटिव सेंस में इसे अमल में लाने की जरूरत महसूस हो रही है।